वाराणसी की पतली गलियों में शाम का सन्नाटा छा रहा था। सूरज की आखिरी किरणें गंगा की लहरों पर मंद प्रकाश की तरह तैर रही थीं। शरद अपने कमरे की खिड़की से बाहर देख रहा था, जहाँ दूर कहीं आरती की मधुर ध्वनि उसके मन को छू रही थी। उसके सामने खुली हुई किताब—”गुनाहों का देवता”—थी, जिसे वह अनगिनत बार पढ़ चुका था, पर हर बार उसे कुछ नया महसूस होता।
तभी दरवाज़े पर हल्की सी दस्तक हुई और वह चौंक गया। बिना देखे उसने कहा, “आओ, अंजलि।” अंजलि धीमे कदमों से अंदर आई। उसकी आँखों में वही पुरानी कशिश और दर्द था, जिसे वह वर्षों से छुपाने की कोशिश कर रही थी।
“तुम अब भी इसे पढ़ते हो?” उसने मुस्कुराते हुए पूछा। शरद ने किताब बंद करते हुए कहा, “हाँ, शायद इसलिए कि इस कहानी में अधूरापन है… ठीक हमारी तरह।” अंजलि ने नज़रें झुका लीं और पूछा, “क्या हम सच में अधूरे हैं?” शरद कुछ पल मौन रहा, फिर बोला, “अगर पूरा होते, तो शायद हमारी यह मुलाकात इतनी खामोशी में न डूबी होती।”
अंजलि उसकी आँखों में झाँकना चाहती थी, पर डर रही थी कि कहीं फिर उसी मोह में न फंस जाए, जिससे निकलने में उसे सात साल लगे थे। उसने धीरे से कहा, “मैंने शादी कर ली, शरद।” शरद हल्की मुस्कान के साथ बोला, “मुझे पता था।” अंजलि ने पूछा, “कैसे?” शरद ने कहा, “तुम्हारी चिट्ठियाँ अब नहीं आतीं।”
अंजलि की आँखें नम हो गईं, और उसने पूछा, “अगर मैं लौट आऊँ तो?” शरद ने गहरी सांस लेते हुए जवाब दिया, “हमारी कहानी का अंत वही रहेगा, अंजलि। ‘गुनाहों का देवता’ में सुधा वापस नहीं आई थी, लेकिन उसके लौटने की चाहत पाठक के मन में हमेशा बनी रही। शायद हम भी किसी कहानी के किरदार हैं—बस इतना फर्क है कि हम खुद अपनी तक़दीर लिख सकते थे, पर हमने ऐसा नहीं किया।”
अंजलि के होंठ कांप रहे थे, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। धीरे से वह उठी और दरवाज़े की ओर बढ़ गई। “शरद?” उसने पीछे मुड़कर कहा। “हम्म?” शरद ने जवाब दिया। “अगर तुम कहानी लिखो, तो मुझे अधूरा मत छोड़ना।” शरद मुस्कुराया और बोला, “अगर मैं लिखता, तो शायद कोई गुनाह न होता और न ही कोई देवता। बस दो लोग होते, जो अपनी तक़दीर खुद तय करते।”
अंजलि ने दरवाज़ा खोला और बाहर चली गई। शरद ने किताब फिर से खोल ली, लेकिन अब पढ़ने के लिए नहीं—बल्कि सोचने के लिए कि क्या कुछ कहानियों का अधूरा रहना ही उनकी खूबसूरती होती है?