विदेश मे आके,काटता खूब चानी जी-तबारक अंसारी

दउरत भागत बूढ़ हो गईनी,
दूर ना भईल परसानी जी,
लोग बुझेला विदेश मे आके,
काटता खूब चानी जी।

इहे बीजा आखिरी रही,
हर बेर इहे हम सोचिले,
खर्चा के हिसाब लगा के,
मन मार के मन के रोकिले।

सोचिले कुछ जुट जाई त,
करती आपन मनमानी जी,
दऊरत भागत बूढ़ हो गईनी,
दूर ना भईल परसानी जी।

एक ओर से सियतानी,
एक ओर से फाँट जाता,
का कही महगाई मुदईया,
सगरो कमाई चाट जाता।

झर गईल सगरो बार माथा के,
उघार हो गईल चानी जी,
दउरत भागत बूढ़ हो गईनी,
दूर ना भईल परसानी जी।

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