जाल में अईसन अझुरऽइनी ए जिनगी – दीपक सिंह ‘निकुम्भ’

दुख देखी-देखी अगुतऽइनी ए जिनगी,
जाल में अईसन अझुरऽइनी ए जिनगी।।

कमाए खातिर बहरा आ गईनी हम,
माई के अंचरवा से परऽइनी ए जिनगी।।

बुझे ना केहू इहाँ–दरद मोर करेजा के,
सबका ला बोझा हम भऽइनी ए जिनगी।।

खटत–खटत देह भइल सुख के ढाठा,
फूल जस देहिया गलऽइनी ए जिनगी।।

होला हुक तऽ–हम रोवेनी अलोता में,
तहरा ला निमन शिकार बनऽनी ए जिनगी।।

किताब के अच्छर पढ़ल लागे आसान,
अभी ले ना तहरा के पढ़ऽनी ए जिनगी।।

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