आदमी, आदमी को सिखाता है अब-जमील मीर

आदमी, आदमी को सिखाता है अब,
गरज होती है तभी हाथ मिलाता है अब।

ज़ख़्म देकर हमें वो खुश तो हुआ,
बेवजह ही मरहम लगाता है अब।

घर की तंगी से परेशान जमील,
रोज़ी-रोटी परदेस से कमाता है अब।

वो मेरी  नादानियों से परेशान हैं,
मुफ़लिसी में भी क्यों मुस्कुराता है अब।

नफ़रतों की रही हो जिसे यारियाँ,
मोहब्बत के ही नग़मे सुनाता है अब।

जिनका मिलना भी ख़ुशनसीबी था,
वो मुलाक़ातों से भी कतराता है अब।

आदमी को आदमी पर भरोसा नहीं,
आदमी, आदमी को डराता है अब।

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